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श्रीनगर गढ़वाल देवभूमि उत्तराखंड देवताओं में कुल देवता और ग्राम देवताओं की भूमि है। गढ़वाल और कुमाऊं मंडलों में प्रचलित पूजा पद्धतियों में से एक है जागर। जागर के जरिए विशेष पूजा अर्चना कर इन्हें मनुष्य के शरीर में बुलाया जाता है। जागर एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा है,जो लोक देवताओं और पूर्वजों की पूजा के साथ जुड़ी हुई है। यह न केवल धार्मिक अनुष्ठान है,बल्कि समाज और पर्यावरण के साथ आत्मीय संबंध स्थापित करने का माध्यम भी है। जागर देवभूमि उत्तराखंड के दोनों मंडलों में गाए जाने वाला एक लोकगीत है और पौराणिक धर्म व पूर्वजों के समय से चली आ रही यह पूजा जिसके एक रूप को जागर भी कहते हैं जागर यानी एक तरीका जिसकी सहायता से हम देवी देवताओं के अनिष्टकारी शक्ति को मनौती के लिए उन देवी देवताओं का आवाहन करने के लिए जागर लगाई जाती है,आज आपको ज्योतिषाचार्य अजय कृष्ण कोठारी जागर के विषय में यथासंभव जानकारी दे रहे हैं। जागर का मुख्य उद्देश्य लोक देवताओं और पूर्वजों का आह्वान कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करना होता है। जिस में हुड़का,ढोल,थाली, ढोल-दमाऊ बजाया जाता हैं। इसे आत्माओं और लोक देवताओं से जुड़ने का साधन माना जाता है। इसमें विशेष ध्यान,भक्ति और श्रद्धा का भाव होता है,जिससे मानव और दिव्य शक्तियों के बीच का संबंध स्थापित होता है लोकगायकों के माध्यम से आत्माओं को जागृत कर उनसे भविष्यवाणियां और समस्याओं का समाधान प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। दो तरह के होते हैं जागर जागर दो तरह के होते हैं। पहला देव जागर और दूसरा भूत जागर। देव जागर में जहां ग्राम,स्थानीय या कुल देवता को बुलाया जाता है। वहीं,भूत जागर में किसी मृत व्यक्ति की आत्मा का आह्वान किया जाता है। जागर में ढोल-दमाऊ,डौंर-थाली और हुड़का जैसे यंत्रों पर विशेष धुन और थाली बजाई जाती है। इसके साथ-साथ देवगाथा भी गाई जाती है। देवगाथा में बताया जाता है कि देवता की उत्पत्ति कैसे हुई और उन्होंने क्या-क्या चमत्कारों किए हैं। इन गीत के मध्यम से गाकर मानव शरीर में देवता का अवतरण कराने की कोशिश की जाती है। देवता का अवतरण करने वाले व्यक्तियों को डंगरिया कहा जाता है। देवता के आगमन के बाद डंगरिया का हाव-भाव,बोलचाल का ढंग सामान्य नहीं रह जाता है। धार्मिक महत्व जागर को पारंपरिक रूप से उत्तराखंड की शक्ति उपासना से जोड़ा जाता है,जहां देवी-देवताओं और स्थानीय लोक देवताओं की पूजा की जाती है। उच्च हिमालयी क्षेत्र में जागर के दौरान स्थानीय कथाएं और पौराणिक आख्यानों का गायन किया जाता है,जिसमें विशेष रूप से शक्ति देवी,नाग देवता,महाभारत के चरित्रों से संबंधित कथाएं होती हैं। यह एक सामाजिक अनुष्ठान है,जिसमें पूरे गांव के लोग एकत्रित होते हैं और मिलकर पूजा करते हैं। इससे सामूहिकता की भावना बढ़ती है और समुदाय में एकजुटता आती है। तराई उत्तराखंड में यही जागर कंत्यूरी वंशज अपने पित्रों के आह्वान के साथ बोक्सादी विद्या व भाषा शैली में लगाते हैं जिस में राजा पिथौरागढ़ी राजा शिव पाल राजा प्रथ्वी पाल व राजमाता जिया रानी या मौला देवी,भैरव बाबा,नर्सिंग भगवान के जागर मुख्यतया हैं। कुछ क्षेत्रों में निरंकार भगवान के जागर गाये जाते हैं जिस का जुड़ाव सीधा विष्णु स्वरूप से होता हैं। अलग अलग क्षेत्रों में लोगों की अपनी अपनी मान्यता हैं जागरणों का वर्तमान स्वरूप जागरण हो चुका हैं जिसे पौराणिक काल में जागर कहा जाता था। यूनीसूको से प्रमाणित राममाण व नंदा देवी राजजात इसी जागर शैली से उत्पन्न हैं। वैज्ञानिक महत्व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जागर की ध्वनि तरंगों और संगीत के माध्यम से उपचारात्मक प्रभाव की संभावना है। जागर में इस्तेमाल किए जाने वाले ढोल-दमाऊं जैसे वाद्य यंत्रों की ध्वनि,मनुष्य के मस्तिष्क और शरीर पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि इन अनुष्ठानों में प्रयुक्त ध्वनियां शरीर की ऊर्जा को प्रभावित कर उसे संतुलित करने में सहायता कर सकती हैं। इसके अलावा,यह मान्यता है कि जागर में प्रयोग होने वाली ध्वनियां लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव डालती हैं। सामूहिक जागर में सम्मिलित होना सामुदायिक एकता को मजबूत करता है,जिससे सामाजिक ताने-बाने में सुधार होता है। जागर में बजने वाली कांसी की थाली से ध्वनि उत्पन्न होती है, जिसे शास्त्रीय रूप से ध्वनि तरंगें कहा जाता है। ध्वनि तरंगों का रंग आवृत्ति उनके कंपन की दर पर निर्भर करता है। ध्वनि आवृत्ति कासे की थाली से उत्पन्न ध्वनि मुख्यतःमध्यम और उच्च आवृत्तियों की होती है। जब इसे बजाया जाता है,तो विभिन्न आवृत्तियों की ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं,जिन्हें मानव कान अलग-अलग तीव्रता में सुनता है। ध्वनि का मानव मस्तिष्क पर प्रभाव कुछ इस तरह होता हैं कि ध्यान व एकाग्रता कांसी की थाली की मध्यम आवृत्ति की ध्वनि मस्तिष्क को ध्यान और एकाग्रता में मदद कर सकती है। यह ध्वनि ओम की तरह कंपन उत्पन्न करती है,जो शांतिपूर्ण मानसिक स्थिति को प्रेरित कर सकती है।
जागर का इतिहास जागर की परंपरा उत्तराखंड में प्राचीन काल से चली आ रही है। यह देवभूमि के लोक संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उत्तराखंड के जागर देवताओं में प्रमुख रूप से भोलानाथ,नरसिंह,देवी भगवती,नागराज आदि की पूजा की जाती है। यह परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है, और लोकगायकों द्वारा इसे जीवित रखा गया है। जागर की शुरुआत कब और कैसे हुई इसका कोई सटीक प्रमाण नहीं है,लेकिन माना जाता है कि इसका संबंध हिमालयी क्षेत्र के प्रकृति पूजन और लोकदेवता पूजा की प्राचीन परंपराओं से है। शोध-पत्र पत्रिकाओं में इस विषय पर शोध हुए हैं जिस में जागर गाने वाले व्यक्ति को जागे,जागरी,झांकरी,झोड़ा,भौंदरि भी कहा जाता हैं। कई शोधकर्ताओं ने जागर पर अध्ययन किया है। दुनिया में अन्य स्थानों पर जागर जैसे अनुष्ठान दुनिया के विभिन्न हिस्सों में पाए जाते हैं,जैसे अफ्रीका में वूडू परंपरा,जहां आत्माओं और पूर्वजों का आह्वान किया जाता है। पश्चिमी अफ्रीका के कुछ हिस्सों में संगो और ओबटाला देवताओं की पूजा जागर के समान अनुष्ठानों के माध्यम से होती है। तिब्बत में चाम नृत्य और भूटान में ट्शेचु उत्सव जो जागर की तरह ही देवताओं के सम्मान में मनाए जाते हैं। हैती और क्यूबा में वूडू और संतरी परंपराएं जागर की तरह आत्माओं और देवताओं का आह्वान करती हैं। लैटिन अमेरिका में सैंटेरिया और कोंडोंबले जैसी धार्मिक परंपराएं भी जागर से मेल खाती हैं,जहां आत्माओं और पूर्वजों का आह्वान किया जाता है। उत्तराखंड में जागर गीत गाने वाले अनेकों ज्ञानी ध्यानी लोग हुए जिन में झुसिया दमाई,बंसन्ति देवी,कपूत्री देवी,उत्तम दास,केशव अनुरागी,चंद्र सिंह राही,राम लाल भारती,कुथलु दास,प्रीतम भरतवाण,छवी लाल ढोंड़ियाल,डॉ.माधुरी बड़थ्वाल टीका राम इन सभी लोगों ने अपने अपने कालखण्ड में जागर विधा को विश्व स्तर पर लेजाने का काम किया हैं आज भी जागर सम्राट कहे जाने वाले पद्मश्री प्रीतम भरतवाण इस कला को विश्व स्तर पर लोकप्रिय बना रहे हैं पद्मश्री बसंती देवी जैसी महिला इस विधा में पारंगर हैं वे जागर शैली को जीवित रखने की कोशिश में जुटी हैं। जागर गाने वाले सभी संस्कृति प्रेमी अलग अलग शैली में जागर गाते रहे हैं मगर मकसद सब का एक ही हैं कि जागर कला को जीवित रखना और नई पीढ़ी को जागर से जोड़ना। आचार्य अजय कृष्ण कोठारी/ज्योर्तिविद ग्राम कोठियाडा पो.ओ.बरसीर रुद्रप्रयाग श्री कोटेश्वर शक्ति वैदिक भागवत पीठ एवं ज्योतिष संस्थान।

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