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बार बार पैरो तले कुचले जाने से मिट्टी अपने भाग्य पर रूदन करने लगी, सोचने लगी मै आह!मै भी कैसी बदनसीब हू कि लोग मेरा अपमान करते है।कोई मुझे सम्मान की दृष्टि से नही देखता,जबकि मुझसे ही खिलने वाले फूलो का कितना सम्मान है लोग अपने आराध्य के चरणो मे इन्हे चढा़ते है।काश मै भी लोगो के मस्तक पर चढ़ जाऊ!मिट्टी की आह को जानकर कुंभकार बोला !बहन ! मै तुम्हे बडा़ सम्मान दिलवा सकता हू,लेकिन एक शर्त है । एक क्या जितनी भी शर्ते हो मुझे स्वीकार है। बस लोग मुझे लोग पैरो तले हटा दे कुंभकार की बात बीच मे ही काटते हुए मिट्टी ने कहा। यह सुनकर कुंभकार तैयार हुआ। उसने जमीन खोदकर मिट्टी बाहर निकाली उसे घर ले आया उसकी कुटाई करके उसे लकडी़ से पीसा फिर,उसे पानी मे डालकर उसे खूब गीला किया इतना ही नही उसे पैरो से खूब रौदा। मिट्टी बीच- बीच मे उफ़ करती, कभी आहे भरती और कष्ट के मारे रोती,कलपती, पर कुंभकार चुपचाप अपना काम करता,वह मिट्टी को समझाता। मिट्टी अपने आप को समझाती और चुप रह जाती। कुंभकार ने मिट्टी को चाक पर चढा़या और तेजी से चलाते हुए धडे़ का रूप दिया। फिर धूप मे सुखाया कष्ट सहते-सहते जब मिट्टी का धैर्य टूटने लगा तो कुंभकार बोला!बस बहन अब केवल एक आवे की अग्नि-परीक्षा शेष है। सीता को लोग सिर झुकाकर सम्मान देते है,परन्तु तुम्हे तो स्त्रिया सिर पर उठाकर सजाकर धूमेगी। मिट्टी ने यह सुना और धीरज रखा। फिर क्या था! सचमुच महिलाओ ने लाल चुनरी बांधकर उसे सिर पर उठाया! मिट्टी प्रफुल्लित हो उठी,उसकी आराधना व तपस्चर्या सफल हो गयी थी।

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