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हम ‘पंचायत’ देखना
इतना क्यों पसंद करते हैं?

छूट चुके गाँव,
वह अमराई और खेत-खलिहान,
पानी की टंकी, गाँव की गलियाँ,
धीमा, सहज जीवन,
फिर जीने की कोशिश करते हैं। इसलिए हम ‘पंचायत’
देखना पसंद करते हैं।

वह आसानी से
किसी का खुश हो जाना,
छोटी- सी बात पर रूठ जाना,
फिर सरलता से मान भी जाना,
मन ही मन मंद-मंद मुस्कराना,
खो चुकी मासूमियत को
ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं।
इसलिए हम ‘पंचायत’
देखना पसंद करते हैं।

बनावटी चाल-ढाल से
कोसों दूर रहने वाले लोग,
वह गाँव की आन-बान-शान
पर मर मिटने वाले लोग,
अपनेपन की जीती जागती मिसाल,
फिर देखना पसंद करते हैं।
इसलिए हम
‘पंचायत’ पसंद करते हैं।

कुछ बन जाने की चाहत,
परेशानियों से उबरने की दौड़-धूप,
जिंदगी के उतार-चढ़ाव,
कुछ प्यार, कुछ अलगाव,
वह अदावत, वह मासूम-सी बगावत,
चुनाव की हलचल,
तैयारी और नतीजे,
देखना पसंद करते हैं।
इसलिए हम
‘पंचायत’ पसंद करते हैं।

शहर में पाया बहुत कुछ,
गाँव में पीछे छूट गया,
फिर भी कुछ,
दोनों को साथ-साथ
जीने की कोशिश करते हैं।
हँसते हुए रोते हैं,
रोते-रोते हँस देते हैं।
इसलिए हम ‘पंचायत’
देखना पसंद करते हैं।
इसलिए हम ‘पंचायत’
देखना पसंद करते हैं।

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