श्रीनगर गढ़वाल महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) एक कानून है, जो शासन को इस बात के लिए बाध्य करता है कि वह किसी भी ग्रामीण परिवार के वैसे सदस्यों को एक साल में सौ दिन का रोजगार मुहैया कराये,जो 18 साल की उम्र पूरी कर चुके हैं और अकुशल मजदूर के रूप में काम करना चाहते हैं। बर्ष 2015-16 में मेरी नियुक्ति लोकपाल मनरेगा के पद पर पौड़ी जनपद में हुई। लोकपाल के कार्यकाल में पौडी जनपद के कोट विकास खण्ड के एक अम्बेडकर गांव में ग्रामीणों से योजना के बारे में वार्तालाप करने का अवसर मिला। इस अवसर पर विकास खण्ड के कर्मचारी ग्राम प्रधान व ग्रामीण जिनमें अधिकतर महिलाएं थी बड़ी संख्या में उपस्थित थे। मैंने ग्रामीणों से योजना के बारे में जानकारी चाही और पूछा कि इस योजना में सब को समय पर रोजगार मिल रहा है सबने एक स्वर में कहा कि हमें विगत छै माह से रोजगार नहीं मिला कुछ गरीब महिलाओं ने तो अपनी व्यथा रोते हुए बताई। मैंने फिर पूछा कि आप लोगों ने रोजगार के लिए आवेदन किया सबने हां भरी। बाद में काफी पूछ ताछ के बाद पता चला कि रोजगार के लिए आवेदन तो लिए गए किन्तु उन पर आवेदन की दिनांक अंकित नहीं करवाई गई थी। मैंने विकास खण्ड के कर्मचारियों से पूछा उन्होंने भी इधर उधर के बहाने बनाने लगे। मैंने ग्राम प्रधान से पूछा कि ऐसा क्यों हो रहा है उनका जवाब था कि मैं विकास खण्ड के चक्कर काटते काटते थक गया में पैसा कहां से दूं इसलिए गांव की योजना की स्वीकृति ही नहीं मिलती। कार्यालय पहुंचे पर मैने कार्यक्रम अधिकारी का स्पष्टीकरण कर एक सप्ताह में कार्य प्रारंभ कराने के निर्देश दिए तब जा के इस गांव में कार्य प्रारंभ हुआ। मरोड़ा पाबो विकास खण्ड,पौड़ी में आयोजित एक कृषि गोष्ठी में सम्मिलित हुआ,गोष्टी में क्षेत्र के कई ग्राम प्रधानों से मनरेगा पर विचार विमर्श का अवसर मिला कई ग्राम प्रधान ऐसे मिले जिनमें कुछ अच्छा करने की सोच थी। मरोड़ा के ग्राम प्रधान ने क्षेत्र में चल रही ग्राम्य विकास योजना के तहत मनरेगा को जोड़ कर ग्रामीणों के सहयोग से अनार व अखरोट की उन्नत किस्मों के दो दो हैक्टर के बाग ग्रामीणों की बंजर पड़ी जमीन पर विकसित करवाये जो कि एक सराहनीय पहल है जिनको मेंने स्वयंम जाकर देखा। वार्ता में मरोड़ा क्षेत्र के ग्राम प्रधानों का कहना था कि मनरेगा में मस्टर रोल निर्गत करने से लेकर लाभार्थियों के भुगतान तक बड़ी सम्स्याऐं आती है कार्यक्रम अधिकारी के कार्यालय के कई चक्कर काटते पड़ते हैं तब जाकर भुगतान प्राप्त होता है। मेंने उनसे भुगतान में हो रही कठनाइयों को लिख कर देने को कहा कोई लिख कर देने को तैयार नहीं हुआ कहने लगे हमें अन्य योजनाओं जैसे राज्य वित्त,विधायक निधि,सांसद निधि आदि से उसी कार्यायल के माध्यम से ठेके लेने हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि जब कानूनी हक प्राप्त योजना से गरीब ग्रामीणों को समय पर योजना का लाभ नहीं मिल पाता तो सामान्य योजनाओं का राज्य में क्या हाल होते होंगे।
एक रिपोर्ट-दो फरवरी 2006 को राज्य के दो जनपदों टेहरी एवं अल्मोड़ा में मनरेगा शुरू की गई। 2008-9 से राज्य के सभी जनपदों में इस अधिनियम को लागू किया गया। शुरू के बर्षौ में मनरेगा योजना के प्रति ग्रामीणों का उत्साह देखते को मिलता था विशेष रूप से महिलाओं में,इस योजना की यह भी विशेषता है कि इसमें रोजगार पाने में पुरुष व महिला में कोई भेद नहीं होता। क्योंकि महिलाएं अन्य जगहों जैसे सड़क निर्माण आदि श्रमिकों कार्यों हेतु बाहर नहीं निकल पाती थी घर पर ही इस योजना में रोजगार मिलने से उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार भी आया। बाद के वर्षो में ग्राम प्रधानों का इस योजना के प्रति लगाव कम होने से इच्छुक ग्रामीणों को इस योजना के अंतर्गत रोजगार नहीं मिल पा रहा है। इसके कई कारण मेरे संज्ञान में आये। योजना के शुरू के बरसों में अधिकतर ग्राम प्रधानों ने अपने परिवार के सभी सदस्यों व नजदीकियां के ( जो गांवों में नहीं रहते थे ) के जोब कार्ड अधिक संख्या में बनवाये। योजना का पूरा संचालन क्योंकि ग्राम प्रधान के ही हाथ में होता था उसे धन का दुरपयोग करने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। गांव के जागरूक नागरिकों ने आरटीआइ के माध्यम से ग्राम प्रधानों से जोब कार्ड धारकों के नाम व पते पूछने शुरू कर दिये इस प्रकार ग्राम प्रधानों के रिशतेदारों के फर्जी जोब कार्ड कम होते गए जिससे ग्राम प्रधानों को मनरेगा में रुचि कम होती गई। योजना में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से जैसे जैसे कर्मचारियों की बढ़ोतरी होती गयी हिस्सेदारी उतनी बढ़ती गई। रोजगार न मिलने की दशा में आवेदक को वेरोजगारी भत्ता देने का प्राविधान है जिसका भुगतान राज्य सरकार को करना होता है। आवेदक से कार्यक्रम अधिकारी का कार्यालय विना तिथि डाले आवेदन लेता है। जिससे निर्धारित तिथि के बाद आवेदक को बेरोजगारी भत्ता न देना पड़े। जबकि यह आवेदक का कानूनी हक है कि उसे रोजगार हेतु आवेदन के पन्द्रह दिनों के अन्दर रोजगार देना है किन्तु आवेदक को यह कह कर बहका दिया जाता है कि ऊपर से योजना स्वीकृत होने पर रोजगार दे दिया जायेगा जैसे आवेदन कर्ता पर अहसान कर रहे हों। आश्चर्यजनक रूप से जबसे मनरेगा योजना चली आंकड़ों के अनुसार राज्य में किसी को भी बेरोजगारी भत्ता नहीं दिया गया याने अभिलेखों में प्रत्येक आवेदक को समय पर योजना में रोजगार उपलब्ध कराया गया।
मनरेगा योजना में कई जनप्रतिनिधियों द्वारा अपनी ग्राम सभाओं में अच्छे कार्य भी कराये गये हैं जिनकी समय-समय पर समाज में भी चर्चा होती रहती हैं। सरकारी रिकॉर्ड में तो मनरेगा कार्य उत्तसाहवर्धक लगते हैं पर गांव में पूछने पर पता चलता है कि जरूरत बदों को रोजगार बहुत कम मिलता है। सौ दिनों के सापेक्ष मात्र औसतन पैंतालीस दिनों का ही लाभार्थियों को रोजगार मिल पाता है। मनरेगा में प्रस्तावित कार्ययोजना ग्रामीणों द्वारा आयोजित खुली बैठक में विचार विमर्श के बाद गांव की आवश्यकता के अनुसार बनाने का प्राविधान है। किन्तु होता इसके विपरीत है अधिकतर ग्राम सभाओं में विकास खण्ड से आये कर्मचारी व गांव के कुछ सम्मानित ग्रामीण (ग्राम प्रधान की नजर में) एक रात प्रधान की मेहमान नवाजी में आपस में बैठते हैं और हो गयी गांव की विकास योजना तैयार। योजना में सोशल आडिट का प्राविधान है राज्य में सोसल आडिट थर्डपार्टी ( ठेके )से कराया जाती है जिसकी नियुक्ति जिले के मुख्य विकास अधिकारी कार्यालय द्वारा होती है। एक दिन गांव में आकर यह औपचारिकता पूर्ण कर ली जाती है कभी कभी तो मुख्यालय में ही सोसल आडिट हो जाता है जिस कार्य का सोसल आडिट करने वाली संस्था से अच्छा खासा भुगतान किया जाता है। राजस्थान,झारखंड,मध्य प्रदेश,आंध्र प्रदेश,तेलंगाना, तमिलनाडु,मेघालय,सिक्किम,आदि कई राज्य है मनरेगा में अच्छे कार्य हुए हैं इन राज्यों ने मनरेगा के प्रारम्भ से ही 2008 में अपने राज्यों के ग्रामीण कृषि विकास को देखते हुए समान कार्य के विभागों के कार्य मनरेगा अधिनियम में जोड़ते हुए अपने राज्य से योजना पास करा कर भारत सरकार से अनुमोदन उपरांत अपने राज्य के हित में मनरेगा एक्ट में शामिल करा दिया तथा सभी कार्य सोसल आडिट के अंतर्गत लाये गये जिससे योजनाओं के क्रियान्वयन में पारदर्शिता लाईं जा सके। उत्तराखंड में ऐसा करने का प्रयास किसी भी सरकार ने नहीं किया। यहां तो,( उदाहरण के लिए ) एक ही ग्राम सभा में बर्मी कम्पोस्ट पिट का निर्माण -मनरेगा,कृषि विभाग,उद्यान विभाग,जलागम,वन विभाग,ग्राम्य,आजीविका,विभिन्न स्वयंम सेवी संस्थाएं बनाने का दावा करते हैं कितने बर्मी कम्पोस्ट पिट गांवों में बने हुए दिखाई देते हैं स्थिति सबके सामने है,हां लक्ष्य सभी विभागों के प्रत्येक वित्तीय बर्ष के पूरे हुए होंगे लक्ष्य पूरे नहीं हुए तो गरीब ग्रामीणों के,समान पृकृति के एक ही काम का एक ही लाभार्थी को विभिन्न योजनाओं से कई बार भुगतान होता रहा है।
यही नहीं एक ही योजना एक ही विभाग की जिला योजना में भी है,राज्य सैक्टर,विश्व वैक,वाह्य सहायतित व भारत सरकार की योजनाओं में भी होती है।
कोरोना काल में जब लाखों की संख्या में प्रवासी अपना स्वयंम का रोजगार छोड़ कर अन्य राज्यों से अपने राज्य उत्तराखंड में आये महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के माध्यम से राज्य सरकार ने मशरूम हट,पोल्ट्री आदि कई प्रोजेक्ट से रोजगार देने का प्रयास किया।
मनरेगा जैसी अच्छी योजना के बहुत अनुकूल परिणाम राज्य के ग्रामीणों को नहीं मिल पा रहे हैं।
मुझे सबसे बड़ा कारण राज्य सरकार द्वारा चाहे वो किसी भी पार्टी की सरकार रही हो योजना का सामाजिक आडिट का प्रभावी ढंग से लागू न करना व समय पर विभिन्न विभागों की कृषि संबंधी समान योजनाओं को मनरेगा में समाहित कर एक्ट के दायरे में नहीं लाना है। राज्य में सोशल आडिट कैसे होता होगा आप इसी से पता चला सकते हैं कि राज्य में किसी भी आवेदक को वेरोजगारी भत्ता नहीं दिया गया जबकि सोसल आडिट में यह भी देखने का प्राविधान है कि कितनों को बेरोजगारी भत्ता दिया गया। किसी भी सामाजिक आडिट में यह उजागर नहीं हुआ कि आवेदकों से रोजगार हेतु आवेदन विना तिथि डाले लिए जाते हैं।
सामाजिक अंकेक्षण( आडिट)- भारत में राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम ऐसा प्रथम राष्ट्रीय कानून है,जिसमें सामाजिक अंकेक्षण की प्रक्रिया को विधिवत् स्वीकार किया गया है।
सामाजिक अंकेक्षण की शुरुआत स्वैच्छिक संस्था “मज़दूर किसान शक्ति संगठन” द्वारा की गयी, जिसमें सरकारी कार्यों एवं व्यय हेतु राजस्थान के रायपुर (पाली) में जन सुनवाई हुई। इसके पश्चात् “हमारा पैसा, हमारा हिसाब” नामक आंदोलन से इस अवधारणा को दुरुस्त किया गया।
सामाजिक अंकेक्षण से लाभ –
1.सामाजिक आडिट सामाजिक कल्याण के लिये उठाए गए कदमों के उद्देश्यों और वास्तविकता के बीच अंतर को पाटने का काम करता है।
2.सामाजिक अंकेक्षण सरकारी धन के उपयोग का गुणवत्तापरक एवं परिमाणात्मक परीक्षण करता है तथा पारदर्शिता बहाल करता है।
3.यह विकास कार्यों में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करता है तथा इस प्रकार लोकतंत्र एवं स्थानीय स्व-शासन की अवधारणा को मज़बूती प्रदान करता है।
4.यह जनता को उसके अधिकारों के प्रति जागरूक करता है तथा सरकारी योजनाओं एवं कल्याण कार्यो की सूचना प्रदान करता है।
5.यह सरकार तथा नौकरशाही को जनता के प्रति अधिक जवाबदेह बनाता है तथा भ्रष्टाचार को कम करने में सहायता करता है।
6.यह हाशिये पर स्थित समुदायों तक सरकारी लाभों को पहुंचाने में तथा उनकी शिकायतों के निपटान के लिये एक उपकरण के रूप में कार्य करता है।
7.सामाजिक अंकेक्षण योजनाओं की निगरानी एवं जनता की आवश्यकताओं के अनुसार उनमें संशोधन करने में सक्षम करता है। राजस्थान,झारखंड,मध्य प्रदेश,आंध्र प्रदेश,तेलंगाना,सिक्किम,तमिलनाडु,मेघालय आदि में सामाजिक संगठनों द्वारा सरकार पर दबाव बना कर तथा नेतृत्व की दृढ़ इच्छाशक्ति के बलबूते सामाजिक सम्प्रेक्षण को प्रभावी बनाया गया। भारत सरकार ने मनरेगा में शत् प्रतिशत कार्यों का सोशल आडिट के निर्देश राज्य सरकारों को दिये है। कार्यों के शत् प्रतिशत सत्यापन के बाद ही केंद्र सरकार राज्यों को मनरेगा में धनराशि आवंटित करेगी। वर्तमान में उत्तराखंड में मात्र 15-20 प्रतिशत कार्यों का ही सोशल आडिट से सत्यापन हो रहा है। कहने को उत्तराखंड राज्य में कई सामाजिक संगठन है किन्तु राजस्थान जैसा हमारा पैसा हमारा हिसाब जैसा आन्दोलन राज्य में कोई भी संगठन खड़ा नहीं कर पाया किसी भी सामाजिक संगठन ने योजनाओं में चल रहे भ्रष्टाचार पर अपनी आवाज बुलंद नहीं की,लगता है सभी पार्टियों की सरकारों में राज्य के सभी सामाजिक संगठनों की हिस्सेदारी तय है।
सुझाव-1.एक सौ दिनों के सापेक्ष एक सौ पचास दिनों का रोजगार दिवस किये जायं।
2.मनरेगा में मजदूरी कम से कम तीन सौ रुपए की जाय। जैसा कि कई राज्यों ने अपने स्तर से किया है।
3.हिमाचल प्रदेश की तरह मुख्यमंत्री एक बीघा जमीन योजना एक बीघा याने चार नाली जमीन पर व्यक्तिगत/ समूहों हेतु मनरेगा से जोड़ते हुए एक-एक लाख की रोजगार परक योजनाएं बनाई जाय।
4.सौसियल औडिट में पारदर्शिता लाई जाय। इसके लिए अन्य राज्यों जैसे राजस्थान,आंध्रप्रदेश,तेलंगाना,तमिलनाडु,मेघालय,सिक्किम आदि राज्यों की तरह किसी सामाजिक आडिट हेतु स्वतंत्र इकाई का गठन किया जाय।
5.ग्रामीण विकास की विभिन्न विभागों की समान योजनाओं को एक कर मनरेगा के अंतर्गत लाने का प्रस्ताव भारत सरकार के अनुमोदन हेतु भेजा जाय जिससे योजनाएं मनरेगा में सामाहित हो सकें जिससे उनको सामाजिक आडिट के दायरे में लाया जा सकें।
5.ग्राम प्रधान,क्षेत्र पंचायत सदस्य एवं जिला पंचायत के सभी सदस्यों को अपने हित छोड़ कर सेवा भाव से कोरोना काल में वे सहारा लोगों को सहारा याने रोजगार देने के प्रयास करने चाहिए।
6.क्योंकि ग्राम प्रधान का मनरेगा योजना के संचालन में महत्वपूर्ण योगदान होता है अतः उन्हें सेवा भाव से योजना का संपादन करना चाहिए।
7.पंचायती राज संस्थानों को मनरेगा के तहत किये जा रहे कार्यों के नियोजन,कार्यान्वयन और निगरानी हेतु उत्तरदायी बनाया गया है। इसलिए जनप्रतिनिधियों का नैतिक दायित्व बनता है कि संकट की इस घड़ी में मनरेगा से जुड़े सभी कर्मचारी अधिकारियों पर निगरानी रखें जिससे पारदर्शिता आ सके।
8.चूंकि राज्य सरकारें बेरोजगारी भत्ता देती हैं,उन्हें श्रमिकों को रोजगार प्रदान करने के लिए भारी प्रोत्साहन दिया जाता है। आवेदकों से बिना तिथि डाले आवेदन लेने बन्द किए जायं जिससे राज्य सरकार पर योजना में शीघ्र धन आवंटन करने का दबाव बना रहेगा।
9.लाभार्थियों में जागरूकता,साक्षरता,एकजुटता और प्रतिरोध की क्षमता का अभाव के कारण इस योजना में पारदर्शिता नहीं आ पाई है। प्रवासियों को ग्रामीणों के साथ मिलकर संगठित होकर मनरेगा योजना के पारदर्शी क्रियान्वयन के लिए रोजगार हेतु प्रयास करने होंगे। पूर्व लोकपाल मनरेगा
पौड़ी गढ़वाल।