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बसंत ऋतु का है इंतजार
मन लुभाती है जो हर बार
प्रतीक्षा में है सारा संसार
सह रहा है शीत ऋतु का प्रहार

साथियों,
प्रकृति अंगड़ाइयां ले रही है
वसंत ऋतु के आने में अभी देरी है
और इसी का वर्णन कविता कर रही है –

सरसों के खेत में
पीले फूल ऐसे खिले हैं
जैसे बसंत को मनाने की
ज़िद पर अड़े है

गेहूं के पात
हरियाली तो बिखर रहे हैं
पर बाली व अन्न छुपाए
तनकर यूं खड़े हैं
जैसे बसंत को मनाने की ज़िद पर अड़े हैं

फूल तो तरह-तरह के खिले हैं
किंतु कुछ नव अंकुर
गर्दन उठाए
धरती से लिपट
यूं झांक रहे हैं
जैसे बसंत को मनाने की ज़िद पर अड़े हैं

नवजीवन की प्रतीक्षा में
रंग बदल
तुलसी के पत्ते
यूं अकड़ रहे हैं
जैसे बसंत को मनाने की ज़िद पर अड़े हैं

हो गए हैं पत्ते सुनहले
सुखे पात बिछुड़ चुके हैं
वृक्षों के हरे कोमल पात
प्रतीक्षा यूं कर रहे हैं
जैसे बसंत को मनाने की ज़िद पर अड़े हैं

पशु पक्षी मानव
सभी मंद गति हो चले हैं
लकड़ियाँ जमाएं
अंगेठी सुलगाएं
साजो -सामान ले
मानव यूं खड़े हैं
जैसे बसंत को मनाने की ज़िद पर अड़े है

अंधेरा कर कर सूरज
कोहरे की चादर ओढ़े
यूं विमुख हो चले हैं
जैसे बसंत को मनाने की ज़िद पर अड़े हैं

सर्द तेज हवाएं
दे रही है साथ
कर रही है निष्ठुरता से आघात
कहती है राहत दूंगी
पहले ऋतु बसंत ले आओ आप
पहले ऋतु बसंत ले आओ आप-

कवियत्री मंजुला श्रीवास्तव.-CEOof TINRAD -  Tulsi Immuno Nano

Research and Development

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