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लोहाघाट/चंपावत संवादाता रमेश राम।

जनपद चंपावत के लोहाघाट क्षेत्र से लगे मां बाराही धाम देवीधुरा में आयोजित होने वाले बगवाल मेले की तैयारी को जिला कार्यालय सभागार मे जिलाधिकारी नवनीत पाण्डेय की अध्यक्षता मे बैठक हुई। 16 अगस्त से 26 अगस्त तक कुल 11 दिनों तक चलने वाले अषाड़ी रक्षाबंधन बग्वाल
मेले को भव्यता से मनाया जाएगा। मेले का मुख्य आकर्षण फल–फूलों से खेले जाने वाला बग्वाल मेला (पाषाण युद्ध) 19 अगस्त को होगा।देवीधुरा मे बाराही देवी मंदिर के प्रांगण मे प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को पत्थरों की वर्षा का एक विशाल मेला जुटता है। मेले की ऐतिहासिकता कितनी प्राचीन हैं, इस विषय में मत –मतांतर, लेकिन आम सहमति है कि नर बलि की परंपरा के अवशेष के रूप में ही बग्वाल का आयोजन होता है।लोक मान्यता हैं कि किसी समय देवीधुरा के संघन वन में बावन हजार वियर और चौंसठ योगनियो के आतंक से मुक्ति देकर स्थानीय जन सी प्रतिफल के रूप मे नर बलि की मांग की जिसके लिए निश्चित किया गया कि पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के खून के बराबर निकले रक्त से देवी को तृप्त किया जाएगा। पत्थरों की मार प्रति वर्ष श्रावणी पूर्णिमा को आयोजित की जाएगी। इस प्रथा को आज भी निभाया जाता हैं लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फर्त्याल जातियों द्वारा चंद सासन तक यहां श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी। इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत मे पर्वतीय क्षेत्रों मे निवास कर रही हैं एक ऐसी जाति का उल्लेख है जो अश्म युद्ध मे प्रवीण थी तथा जिसने पांडवो की ओर से महाभारत के युद्ध मे भाग लिया था। ऐसी स्थिति मे पत्थरों के युद्ध की परंपरा का समय काफी प्राचीन ठहरता हैं। कुछ इतिहासकार इसे आठवीं –नवीं शती ई. से प्रारंभ मानते हैं कुछ खास जाति से भी इसे संबंधित करते हैं बग्वाल की इस परंपरा को वर्तमान में महर और फर्त्याल जाति के लोग ही अधिक सजीव करते हैं। इनकी टोलिया डोल–नगाड़ों के साथ रिंगाल की बनी हुई छतरी, जिसे छंतोली कहते हैं। सहित अपने –अपने गांव से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण मे पहुंचती हैं। सिर पर कपड़ा बांध हाथो में लट्ठ तथा फूलो से सजा फर्रा–छंतोली लेकर मंदिर के सामने परिक्रमा करते हैं। इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़ –चढ़कर हिस्सा लेते हैं बग्वाल खेलने वाले द् यौकै कहे जाते है। वे पहले दिन से सात्विक आचार व्यहार रखते हैं देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का हैं। फुलारा कोट के फुलारा मंदिर मे पुष्पों की व्यवस्था करते हैं।मनटांडे और डोलीगांव के बाह्मण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वो पर पूजन करवा सकते हैबग्वाल का एक निश्चित विधान हैं। मेले के पूजन अर्चन के कार्यक्रम यधपि आषाढ़ी कौतिक के रूप मे एक माह तक लगभग चलते हैं, लेकिन विशेष रूप से श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारंभ होकर भाद्रपद कष्णपक्ष की द्वितीया तिथि तक परंपरागत पूजन होता है। बग्वाल के लिए सांगी पूजन एक विशिष्ठ प्रक्रिया के साथ संपन्न किया जाता हैं जिसे परंपरागत रूप से पूर्व से ही संबंधित चारो खाम (ग्रामवासियों का समूह) गढ़वाल चम्याल, वालिक तथा लमगड़िया के द्वारा संपन्न किया जाता हैं। मंदिर मे रखा देवी विग्रह एक संदूक मे बंद रहता हैं उसी के समक्ष पूजन संपन्न होता है। यही का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता हैं जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलो के हाथो से देवी विग्रह को बचाने मे अपूर्व वीरता दिखाईं थी। पुर्णिमा को भक्तजनों की जय जयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण मे रखा जाता हैं इन सबका मार्ग पूर्व में ही निर्धारित होता हैं। मैदान में पहुंचने का स्थान व दिशा हर खाम की अलग होती हैं उत्तर की ओर से लमगड़िया, दक्षिण की ओर से चम्याल, और पश्चिम की ओर से वालिक मैदान मे आते हैं। दोपहर तक चारो खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण–पश्चिम द्वार से बाहर निकलती हैं फिर वे देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैंदोपहर मे जब मैदान के चारो ओर भीड़ का समुद्र उमड़ पड़ता हैं तब मंदिर का पुजारी बग्वाल प्रारंभ होने की घोषणा शुरू करता हैं। इसके साथ ही खामो के प्रमुख की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनो ओर से प्रारंभ होती है। ढोल का स्वर ऊंचा होता जाता हैं, छंतोली से रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंके जाते हैं। धीरे–धीरे बगवाली एक दूसरे पर परहार करते मैदान के बीचों– बीच बने ओड सीमा रेखा तक पहुंचने का प्रयास करते हैं फर्रा की मजबूत रक्षा दीवार बनाई जाती हैं। जिसकी आड़ से वे प्रतिद्वंदी दल पर पत्थरों की वर्षा करते हैं पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता हैं कि एक मानव के रक्त के बराबर खून बह गया होगा, तब वह तांबे के छत्र और चंबर के साथ मैदान मे आकर बग्वाल संपन्न होने की घोषणा करता हैं। बग्वाल का समापन शंखनाद से होता हैं तब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता दर्शित कर द्यौके धीरे–धीरे खोलीखाण दूबाचौण मैदान से विदा होते हैं। मंदिर मे अर्चन चलता हैं।कहां जाता हैं कि पहले जो बग्वाल आयोजित होती थी उसमे फर का प्रयोग नही किया जाता था, परंतु सन् 1945 के बाद फर का प्रयोग किया जाने लगा बग्वाल मे आज भी निशाना बनाकर पत्थर मरना निषेध हैं।रात्रि में मंदिर जागरण होता हैं श्रावणी पूर्णिमा के दूसरे दिन बक्से में रखे देवी विग्रह के डोले के रूप मे शोभा यात्रा भी संपन्न होती हैं। वैसे देवीधुरा का नैसर्गिक सौंदर्य भी मोहित करने वाला है, इसलिए भी बग्वाल को देखने दूर– दूर से सैलानी देवीधुरा पहुंचते हैं।

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