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काशीपुर -एक धर्मसभा का कहीं आयोजन हुआ था. शहर से दूर के इलाके में. वहां विभिन्न धर्मों और धर्मों के विभिन्न पंथों और संप्रदायों के प्रचारक अपने शिष्यों के साथ आए थे।

व्याख्यान चल रहे थे. सभी अपने-अपने पंथ को श्रेष्ठ बताते और यह दावा करते कि केवल उनके संप्रदाय में दीक्षित होकर ही मानवमात्र का कल्याण हो सकता है. उनका मार्ग ही कल्याण का मार्ग है और सर्वश्रेष्ठ है।

सभास्थल के समीप ही एक दलदल थी. कोई व्यक्ति धोखे से उसमें गिर गया. दलदल में धंसने लगा तो उसने सहायता के लिए पुकारा. पुकार सनकर विभिन्न धर्मों और पंथों के प्रचारक आदि पहुंचे।

वह व्यक्ति संकट में था किन्तु कोई सहायता को नहीं जा रहा था. कोई उपदेश देने लगता कि संसार भी ऐसा ही दलदल है अगर सही राह दिखाने वाले गुरू न हुआ तो मनुष्य ऐसे ही तड़पता रहता है।

कोई दर्शन बघारने लगा तो कोई लोक-परलोक पर भाषण करने लगा. कुछ लोग आयोजकों को भी कोसने लगे कि उन्हें दलदल के पास बाड़े लगवाने चाहिए थे।

एक व्यक्ति के प्राण संकट में थे और चारों और से ज्ञान की वर्षा हो रही थी. वहां से लकड़ियों का बड़ा सा गठ्ठर सिर पर लादे दो लकड़हारे गुजर रहे थे. शोर सुनकर वे भी पहुंचे।

उन्होंने झटपट अपना गठ्ठर जमीन पर पटका उसकी रस्सियां खोलकर मजबूती से बांध दी. एक ने रस्सी का सिर पेड़ से बांधा और दलदल में उतरा. दूसरे साथी ने धीरे-धीरे रस्सी खींचीं और उस व्यक्ति की जान बचा ली।

सभी धर्मप्रचारक लकड़हारों के पास पहुंचे और उनके हिम्मत की प्रशंसा करने लगे. फिर उन्होंने पूछा– भाई आप दोनों किस धर्म या पंथ से हैं. आपके गुरू कौन हैं ?

लकड़हारे ने कहा- हम मानवता के धर्म से हैं. हमें दया जैसे गुण सीखने के लिए किसी गुरू के ज्ञान की आवश्यकता नहीं. जिसके मन में दया का भाव है वह इंसान है. यह बात समझने के लिए कोई मंत्र लेना जरूरी नहीं।

धर्मप्रचारकों के पास कहने को कुछ न था. मानवता के गुणों पर अमल करना ही सबसे बड़ी भक्ति है. धर्मग्रंथों का यही सार है. यदि यह सामान्य सी बात किसी को स्वयं समझ में नहीं आती तो किसी भी गुरू द्वारा दिया मंत्र भी इसे नहीं सिखा सकता।

अपने गुरू स्वयं बनिए. राम राम जपते रहे।हर व्यक्ति में राम और रावण दोनों होते हैं. आत्म मूल्यांकन करते रहिए कि क्या आपके अंदर के राम ज्यादा प्रभावी हैं या रावण हावी हो रहा है. इसका संतुलन स्वतः बना सकें तो किसी गुरू की आवश्यकता नहीं।

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